“मेरे राम का मुकुट भीग रहा है” निबंध का प्रतिपाद्य
विद्यानिवास मिश्र का निबंध “मेरे राम का मुकुट भीग रहा है” -) मेरे राम का मुकुट भीग रहा हैं’ निबंध में मिश्र जी का मन राम के मुकुट भीगने की चिंता से व्यथित है। साथ ही लक्ष्मण का दुपट्टा और सीता की मांग के सिंदूर के भीगने की चिंता भी उन्हें है। उनका चिरंजीव और उनकी मेहमान एक लड़की संगीत कार्यक्रम में गए हैं। रात के बारह बजे तक भी वे नहीं लौटते तो मिश्र जी का मन दादी-नानी के उन गीतों की ओर जाता है जब वह उनके लौटने पर गाती थी “मेरे लाल को कैसा वनवास मिला था” उस समय तो यह आकुलता समझ नहीं आती परंतु आज जब हम उसी स्थिति में पहुंच गए हैं तो उस गीत का एक-एम शब्द सार्थक लगता है।
“प्रतिपाद्य” मेरे राम का मुकुट भीग रहा है
मन उन लाखों करोड़ों कौसल्याओं की ओर दौड़ जाता है जिनके राम वन में निर्वासित है और उनके मुकुट भीगने की चिंता है। मुकुट लोगों. के मन में बसा हुआ है। काशी की रामलीला आरंभ होर्ने से पहले निश्चित मुहूर्त मुकुट की पूजा की जाती है। मुकुट तो मस्तक पर विराजमान है। राम भीगे तो भीगे पर मुकुट न भीगने पाए। इसी बात की चिंता है। राम के उत्कर्ष की कल्पना न भीगे, वह हर बारिश में, हर दुर्दिन में सुरक्षित रहे। राम तो वन से लौटकर राजा बन जाते हैं परंतु सीता रानी होते ही राम द्वारा निर्वासित कर दी जाती है।
mere raam ka mukut bheeg raha hai “pratipaady”
पर इस निर्वासन में भी सीता का सौभाग्य अखण्डित है वह राम के मुकुट को तब भी प्रमाणित करता है और राम को पीड़ा भी देता है। इस पीड़ा से राम का मुकुट इतना भारी हो जाता है कि वह इस बोझ से कराह उठते हैं और इस वेदना की चीत्कार में सीता के माथे का सिंदूर और दमक उठता है यह सोचते-सोचते चार बज गए और अचानक चिरंजीव और लड़की के आने की आवाज आई । महेमान लड़की के रात को देर से घर लौटने पर सीता का ख्याल आ जाता है। यह ख्याल आज की अर्थहीन उदासी को कुछ ऐसा अर्थ हो जाता है जिससे जिदंगी ऊब से कुछ उबर सके।