निबन्ध का सार

मेले का ऊँट निबन्ध का सार -> ‘मेले का ऊँट’ बालमुकुन्द गुप्त का प्रसिद्ध निबन्ध है। इस निबन्ध में उन्होंने ‘ऊँट’ की उपेक्षा और मारवाड़ियों के नवीन संस्कृति-प्रेम को वर्ण्य-विषय बनाया है। ‘भारतमित्र’ सम्पादक को लिखे अपने पत्र में लेखक उस पत्र में छपे ‘मोहन मेले’ लेख की आलोचना करते हुए कहता है कि सम्पादक की दृष्टि गिद्ध जैसी अवश्य होनी चाहिए लेकिन उस भूखे गिद्ध जैसी नहीं जो ऊपर आकाश में उड़ते समय धरती पर पड़े गेहूँ के दाने के लालच में फँसकर शिकारी के जाल में फँस जाता है।

बालमुकुन्द गुप्त प्रसिद्ध निबन्ध

लेखक कहता है कि ‘मोहन मेले’ में यदि एक पैसे की पूरी दो पैसे में बिक रही थी तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है। मेले में चीजें महँगी होती ही हैं। इसी प्रकार ग्यारह सौ सतरों का पोस्टकार्ड भी लेखक की निगाह में व्यर्थ की चीज है। ऐसी व्यर्थ की चीजें देखने के लिए वह सम्पादक की आलोचना करता है। वह पूछता है कि सम्पादक को वहाँ बैठा ऊँट क्यों नहीं दिखाई दिया? कलकत्ते के उस मेले में अनेक लोग ऊँट की ओर देखकर हँस रहे थे, उसका मज़ाक उड़ा रहे थे। एक मारवाड़ी कह रहा था ‘ऊँटड़ो है’ और दूसरा पूछ रहा था कि ‘ऊँट वहाँ कहाँ से आ गया?” लेखक को लगा कि शायद ऊँट उन मारवाड़ियों से कुछ कहना चाहता है।

‘मेले का ऊँट’ निबन्ध का सार

balmukund gupt

‘भंग की तरंग’ में ऊँट की भाषा उसे समझने में आने लगी। उन मारवाड़ी बाबुओं की ओर धूंथनी करके ऊँट ने कहा कि वे पोतड़ों के अमीर हैं। उन्होंने महलों में जन्म लिया है। वे बच्चे हैं। वे ऊँट के बारे में क्या जानें? उन्हें अपने पिछले कार्यों और सेवाओं के सम्बन्ध में बताया हुआ ऊँट कहता है कि आजकल जिन विलायती फिटिन, टमटम पर चढ़कर वे निकलते हैं, घूमते हैं, वे उनके पास सदा से नहीं थे। ये सब चीजें बहुत बाद में ईज़ाद हुई हैं। उनके पूर्वज़ ऊँटों पर ही बैठकर मारवाड़ से कलकत्ता पहुँचे थे।

‘मेले का ऊँट’ बालमुकुन्द गुप्त निबन्ध का सार

जिस समय का यह निबन्ध है, उससे पचास साल पहले रेलें नहीं थीं। मारवाड़ से मिरज़ापुर और मिरज़ापुर से रानीगंज तक ऊँट ही न जाने कितने चक्कर लगाता था। मारवाड़ियों के पूर्वजों का घर महीनों ऊँट की पीठ पर ही रहता था। उन की स्त्रियाँ उसकी पीठ को ही पालकी समझती थीं। मारवाड़ में वह उनके द्वार पर हाजिर रहता था, पर कलकत्ता में यह नहीं हो पाता इसीलिए वह उन्हें मेले में देखकर अपनी आँखें शीतल करने आया है। मारवाड़ियों के प्रति ऊँट का वात्सल्य अभी भी वर्तमान है।

mele ka oont nibandh ka saar
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मारवाड़ में वह उनके खेतों में हल चलाता था, अन्न उपजाता था, चारा आदि उनके घर पहुँचाता था। कलकत्ता में पानी की मशीनें और पानी पिलाने वाले कहार हैं पर मारवाड़ में पानी लाने का काम भी ऊँट ही करता था। ऊँट पर बैठकर मारवाड़ी वह अनुपम सुख अनुभव करते थे जो आज मुलायम गद्दियों वाली फिटिन पर बैठकर भी प्राप्त नहीं होता है। ऊँट की बलबलाहट पुराने मारवाड़ियों को जितनी प्रिय लगती थी, अपनी बीब के स्वर भी आज के मारवाड़ियों को उतने न भाते होंगे। उन्हें सब बाजों से मधुर ऊँट के गले के घण्टे का स्वर लगता था। फोग के जंगल में चरते ऊँट को देखकर वे उतने प्रसन्न होते थे, जितना आज के मारवाड़ी भंग पीकर और ताश खेलकर होते हैं।

बालमुकुन्द गुप्त निबन्ध का सार
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भंग की निन्दा सुनकर लेखक चौंक गया। उसने ऊँट से कहा कि वह बलबलाना बंद कर दे। आज ज़माना बदल चुका है। पेड़ों की छाल और पत्तों से शरीर ढकने वाले अब कपड़ा मिलों के मालिक हैं। सिर पर गठरी ढोने वालों की संतान पहले दर्जे की अमीर है। इसलिए ऊँट पर चलने वालों की संतान सदा ऊँट पर चले, यह तो कोई बात नहीं है। मारवाड़ियों ने आज एसोसिएशन बना रखी है और यदि ऊँट ज्यादा बोलेगा तो वे उसे मारवाड़ से निकलावा देंगे। उसे चाहिए कि वह उनका गुणगान करता रहे। यदि वे ऐसा करेंगे तो जिस प्रकार लार्ड कर्जन ने ‘ब्लैक होल’ को संगमरमर से मढ़वाकर शानदार बना दिया है, उसी प्रकार मारवाड़ी भी ऊँट के लिए मखमली, जरी की गद्दियाँ, हीरे-पन्ने की नकेल और सोने की घंटियाँ बनाकर उसका सम्मान करेंगे।

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