नाटक और रंगमंच परस्पर आश्रित है’-कथन की समीक्षा कीजिए।
नाटक और रंगमंच के अंतःसंबंध-> नाटक एक ऐसी साहित्यिक विधा है जिसका उद्भव ही मंचन के लिए हुआ है। अतः इसलिए रंगमंच का होना आवश्यक है। इसी प्रकार रंगमंच एक ऐसा स्थल है, जो इसी उद्देश्य से निर्मित हुआ है कि वहाँ किसी नाटक का मंचन हो। अतः दोनों का संबंध अन्योन्याश्रित है। एक के बिना दूसरे का कोई महत्त्व नहीं है।
दूसरी ओर जयशंकर प्रसाद नाटक के लिए रंगमंच को आवश्यक नहीं मानते, वे कहते हैं-“रंगमंच के संबंध में यह भारी भ्रम है कि नाटक रंगमंच के लिए लिखे जाए। प्रसत्न तो यह होना चाहिए कि नाटक के लिए रंगमंच हो, व्यावहारिक है। हाँ रंगमंच पर सशिक्षित और कुशल अभिनेता तथा मर्मज्ञ सूत्रधार के सहयोग की आवश्यकता है।
” वस्तुत: नाटक रंगमंचीय विधा है। नाटक की यह परीक्षा रंगमंच पर होती है। नाटक को हम सुनते भी है और देखते भी है। नाटक जब मंचित होता है। तो उसमें केवल पात्र ही नहीं बोलते-पूरा मंच बोलता है-मंच सब्जा, रूप सज्जा, वेशभूषा, सभी बोलते हैं। यहाँ तक कि पात्र का पूरा शरीर बोलता है। अतः जिस नाटक में जितनी ही अधिक मंचीय संभावनाएं होती हैं, वह नाटक उतना ही अधिक सफल होता है। रंगमंच सजीव और साकार कला माध्यम है। रंगमंच का तात्पर्य केवल रंगस्थली या रंग-मंडप से नहीं है. इसकी परिधि में रंगशाला, नाटक, पात्र, वेश-भूषा, अभिनय, मंत्रीय उपकरण आदि सभी आ जाते हैं। रंगमंच ऐसा दृश्य और श्रव्य माध्यम है, जिससे सभी ललित सभी ललित कथाएँ समन्वित हो जाती हैं। भरतमुनि ने ‘नाटयशास्त्र’ में लिखा है कि ऐसा कोई भी ज्ञान, शिल्प, विधा, कला, योग या कर्म नहीं है जो नाट्य में न हो। जरूर पढ़े -> कर्मभूमि का कथासार
रंगमंच का क्षेत्र बड़ा व्यापक है
रंगमंच का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। इसकी ओर शिक्षित और अशिक्षित, सभी आकृष्ट होते हैं। सामूहिक कला होने के कारण रंगमंच से दर्शकों में भावानात्मक एकता स्थापित होती है। इससे दर्शकों का मनोरंजन तो होता ही है, साथ ही यह उनको अपनी सांस्कृतिक परंपरा से भी जोड़ता है. और उनके मानस को परिष्कृत करता है। इससे समाज में मानवीय मूल्यों की स्थापना होती है। रंगमंच कथ्य को व्यापकता के साथ अभिव्यक्त करता है और इसका प्रभाव भी दर्शकों में गहरा पड़ता है. क्योंकि यह गतिशील कार्य व्यापार से यह दर्शकों को सीधे कलाकृति से जोड़ता है। युक्त हैं। जरूर पढ़े -> Benefits Of Lemon Water
अन्योयाश्रित संबंध
नाटक और रंगमंच के अंतःसंबंध -> नाटक और रंगमंच का संबंध अन्योयाश्रित है। बिना रंगमंच के नाटक अपूर्ण है और बिना नाटक के रंगमंच। जो नाटककार रंगमंच की सीमाओं को जानता है और उनकी दृष्टि में रखकर नाटक लिखता है, उसके नाटक प्रायः अधिक सार्थक और मंच के अनुकूल होते हैं। वैसे तो पर्याप्त साधन और मंचीय उपकरण उपलब्ध होने पर जटिल और गंभीर नाटक भी मत कर लिए जाते हैं, पर उनसे रंगमंच का व्यापक विकास नहीं हो पाता। हिंदी का रंगमंच अभी अधिक समृद्ध नहीं है अतः इसके लिए सहज अभिनेय नाटक हो उपयुक्त है। जरूर पढ़े -> कर्मभूमि का कथासार
अत्यंत घनिष्ठ है नाटक एवं रंगमंच का अंतःसंबंध
नाटक और रंगमंच के अंतःसंबंध -> यदि हम मोहन राकेश के नाटकों एवं उनकी रंगमंचीय सफलता का उदाहरण सामन रखें तो हम सहज ही यह स्पष्ट कर सकते है कि नाटक एवं रंगमंच का अंतः संबंध अत्यंत घनिष्ठ है।
मोहन राकेश के सभी नाटक, रंगमंचीय सीमाओं को दृष्टि से रखकर लिखे गये हैं मोहन राकेश नाट्य लेखन को बड़ी गंभीरता से लेते थे और हर नाटक पर पर्याप्त श्रम करते थे। उन्होंने रंगनिर्देशक के साथ मिलकर अपने नाटकों में रंगमंचीय अपेक्षाओं के अनुसार सुधार भी किया। मोहन राकेश के तीनों ही नाटक एक मंचबंध से संयोजित है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ का कथ्य तीन अंकों में विभक्त है और तीनों ही अंक एक-एक दृश्य के हैं। अंकों का ‘सेट’ मल्लिका के घर का कमरा है। मंच सज्जा यथार्थवादी है, लेकिन एक बार ‘सेट’ लगा देने के बाद फिर उसे हटाना नहीं पड़ता।
इसी तरह लहरों के राजहंस’ नाटक भी तीन अंको का है-सभी अंक एक-एक दृश्य के हैं। पूरा नाटक सुंदरी के कक्ष में ही चलता है। मंच सज्जा इसमें भी यथार्थवादी है मंच पर रखी गयी, पुरुष और नारी मूर्ति प्रतीकात्मक है-दायीं और शिखर पर नारी-मूर्ति बाहें संबंलित तथा आँखें धरती की ओर झुकी हुई। ‘आधे-अधूरे’ नाटक का कथ्य दो भागों में विभक्त हैं. दोनों भाग एक दृश्यीय हैं। दोनों भागों में मध्य छोटा-सा ‘अंतराल-विकल्प’ है। मंच-बंध एक है-सावित्री के घर का एक कमरा। इस नाटक की मंच सज्जा भी यथार्थवादी है। जरूर पढ़े -> कर्मभूमि का कथासार
राकेश के तीनों नाटकों में निर्देश…
मोहन राकेश ने अपने तीनों नाटकों में, मंच सज्जा, वेश-भूषा और अभिनय के पर्याप्त निर्देश दिये हैं। आधे-अधूरे’ में अभिनय में संबंधित निर्देश काफी विस्तृत हैं। एक संश्लिष्ट निर्देश का स्वरूप इस प्रकार है-‘हल्के अभिवादन के रूप में सिर हिलाता है, जिसके बीच ही उसकी आकृति धीरे धीरे धुँधलाकर अंधेरे में गुम हो जाती है। उसके बाद कमरे वे अलग-अलग कोने एक-एक करके आलोकित होते हैं और एक आलोक व्यवस्था में मिल जाते हैं कमरा खाली है।
तिपाई पर खुला हुआ हाईस्कूल का बेग पड़ा है। जिसमें से आधी कापियाँ और किताबें बाहर बिखरीं हैं। सोफे पर दो-एक पुराने मैगजीन, एक कैची और कुछ कट-अधकटी तस्वीरें रखी हैं। एक कुरसी की पीठ पर उतरा हुआ पजामा झूल रहा है। स्त्री कई-कुछ संभाले बाहर से आती है। कई-कुछ में कुछ घर का है, कुछ दफ्तर का, कुछ अपना। चेहरे पर दिन-भर के काम की थकान है और इतनी चीजों के साथ चलकर आने की उलझन। आकर सामान कुरसी पर रखती हुई यह पूरे कमरे पर एक नजर डाल लेती है। मोहन-राकेश के नाटकों में दिये गये रंग-संकेत, नाटककार की रंगमंच में गहरी पैठ के परिचायक है। जरूर पढ़े -> How to reduce uric acid?
संकलन-त्रय
मोहन राकेश ने अपने नाटकों में संकलन-त्रय पर भी ध्यान रखा है। वे स्थान काल और समय का पूरा ध्यान रखते हैं, ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक में अंको के बीच कुछ वर्षों का अंतराल है। लहरों के राजहंस’ नाटक की पूरी कथा चौबीस घंटे की अवधि में संयोजित है। इसी प्रकार आधे-अधूरे नाटक के बीच का अंतराल भी एक दिन का ही है। नाटक के स्थान में तो वे कोई परिवर्तन करते ही नहीं। प्रत्येक नाटक एक स्थान में ही घटित होता है। जरूर पढ़े -> Tips for saving smartphone battery
वस्तु संयोजन
नाटक और रंगमंच के अंतःसंबंध -> मोहन राकेश नाटक के वस्तु संयोजन में भी बड़े कुशल है। ये वस्तु को बड़े स्वाभाविक और मनोवैज्ञानिक ढंग से संयोजित करते हैं। वस्तु अपने पूरे कार्य व्यापार के साथ आगे बढ़ती है कहीं-कहीं वे पात्र के प्रवेश के पूर्व ही उसकी भाव-भूमि निर्मित कर देते हैं, इससे कथ्य सहज ही गतिशील हो जाता है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास के प्रवेश के पूर्व ही अम्बिका और मल्लिका के वार्तालाप द्वारा कालिदास, के मनोभाव और स्थिति को स्पष्ट कर दिया जाता है। इसके साथ ही कहीं-कहीं पात्र के अचानक प्रवेश द्वारा कौतूहल की पुष्टि की गयी है। मोहन राकेश विचार को. प्रायः संवेदन से जोड़कर प्रस्तुत करते हैं, इससे नाटक में नीरसता नहीं आने पाती। कहीं-कहीं रोचक प्रसंगों की भी अवतारणा की गयी है. पर ये प्रसंग मूल कथा से पूरी तरह जुड़े है। जैसे ‘आषाढ़ का एक दिन’ में अनुस्वार और अनुनासिक का कार्य व्यापार। जरूर पढ़े -> Using dark mode in the phone can be dangerous
रंगमंचीय भाषा, शब्द की संगति और लय-ध्वनि
रंगमंचीय भाषा, शब्द की संगति और लय-ध्वनि पर भी राकेश पूरा ध्यान रखते हैं। रंगमंचीय भाषा की दृष्टि से ‘आधे-अधूरे’ नाटक की भाषा एक मानक है। सहज, स्वाभाविक और गतिशील भाषा का प्रयोग इस नाटक में किया गया है। एक उदाहरण देखिए-“तुम्हारा घर है तुम बेहतर जानती हो। कम-से-कम मानकर यही चलती हो। इसीलिए कुछ चाहते हुए भी मुझे अब कुछ भी संभव नजर नहीं आती और इसलिए फिर एक बार पूछना चाहता हूँ। तुमसे-क्या सचमुच किसी तरह तुम उस आदमी का छुटकारा नहीं दे सकती। जरूर पढ़े -> कर्मभूमि का कथासार
मोहन राकेश की दृष्टि नाटक लिखते में पूरे रंग-तंत्र पर रहती है। इस संदर्भ में जीवन प्रकाश जोशी का एक कथन उल्लेख्य हैं-“राकेश का दृष्य-विधान, रंगमंचीय साज-सज्जा, मनोभावों की अभिव्यक्ति सूचक स्थिति संकेत, वाद्य-वादन, स्वर-संरचरण, कथाकथन, व्यावहारिक अथवा परिस्थितिजन्य प्रकट अंतर्द्वंद्व, भाषा-शैली, चरित्र-घटना की एक आंतरिक अन्विति, अवतार घटनाओं की संयोजना ओर सष्ठ अभिव्यक्ति, इस नाटककार के नाटकों को अधिकतर अत: आस्वाद्य योग्य बनाये रखती है। जरूर पढ़े -> made in India SmartPhones
” मोहन राकेश वस्तु और शिल्प दोनों स्तर पर रंगमंच से संगति स्थापित करते हैं। उन्होंने अपने नाटकों से परंपरा और आधुनिकता का बड़ा सुंदर समन्वय किया है। एक और परिमार्जित भाषा है तो दूसरी और रंगमंचीय भाष की व्यापक भूमि। कहना न होगा कि मोहन राकेश तीन घटक लिखकर, जो कार्य कर गये, वह दर्जनों नाटक लिखने के बाद भी दूसरे नाटककार नहीं कर सके। मोहन राकेश के नाट्य लेखन के पीछे उनकी अनवरत साधना, रंगमंच के प्रति उनकी अटूट निष्ठा और कला के प्रति दायित्वबोध की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जरूर पढ़े -> Swadesh Bazaar will compete with Amazon